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अमेरिका में क्या Trump की वापसी के साथ खत्म हो जाएगा दुनिया का सबसे ताकतवर सैन्य गुट, यूरोप में क्यों मची खलबली?

डोनाल्ड ट्रंप की जीत का असर अकेले यूएस तक सीमित नहीं, बल्कि बहुत से और देशों में भी खदबदाहट है. खासकर NATO में शामिल मुल्क डरे हुए हैं कि जाने कब ट्रंप इससे अपना हाथ खींच लें और वे बेसहारा हो जाएं. कई देश अपनी सुरक्षा के लिए इसी सैन्य संगठन पर निर्भर हैं. ऐसे में सबसे बड़ा फंडर अगर नाटो से दूरी बना ले तो देश क्या करेंगे?

दुनिया के सबसे ताकतवर सैन्य संगठन NATO पर भी डोनाल्ड ट्रंप की वापसी का असर हो सकता है. अमेरिका इस गुट पर सबसे ज्यादा पैसे खर्च करता है. ट्रंप इस बात को लेकर काफी नाराज रहे और कई बार बयान दे चुके कि वे नाटो को फंडिंग कम या बंद कर देंगे. अगर ऐसा हुआ तो इसपर निर्भर देश अपनी सुरक्षा के लिए क्या कर सकते हैं, क्या कोई प्लान बी भी है, जो इन देशों के पास है? क्या इसके बाद परमाणु हथियार बनाने पर जोर बढ़ सकता है?

क्या है नाटो, क्या मकसद रहा?

यह एक मिलिट्री गठबंधन है. पचास के शुरुआती दशक में पश्चिमी देशों ने मिलकर इसे बनाया था. तब इसका इरादा ये था कि वे विदेशी, खासकर रूसी हमले की स्थिति में एक-दूसरे की सैन्य मदद करेंगे. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा इसके फाउंडर सदस्थ थे. ये देश मजबूत तो थे, लेकिन तब सोवियत संघ (अब रूस ) से घबराते थे. सोवियत संघ के टूटने के बाद उसका हिस्सा रह चुके कई देश नाटो से जुड़ गए. रूस के पास इसकी तोड़ की तरह वारसॉ पैक्ट है, जिसमें रूस समेत कई ऐसे देश हैं, जो पश्चिम पर उतना भरोसा नहीं करते.

कौन बन सकता है सदस्य?

इसके लिए जरूरी है कि देश में लोकतंत्र हो. चुनावों के जरिए लीडर बनते हो. आर्थिक तौर पर मजबूत होना भी जरूरी है. लेकिन सबसे जरूरी है कि देश की सेना भी मजबूत हो ताकि किसी हमले की स्थिति में वो भी साथ दे सके. मेंबर बनने के लिए देश खुद तो दिलचस्पी दिखाता है, साथ ही पुराने सदस्य उसे न्यौता भी दे सकते हैं. इसके बाद ही मंजूरी मिलती है.

ट्रंप ने अपने पिछले टर्म में नाटो को लेकर बड़ी चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर सदस्य देशों का रक्षा खर्च न बढ़ाया जाए तो यूएस भी मदद करना कम कर देगा. अब इस बार चुनाव प्रचार के दौरान भी नाटो ट्रंप के निशाने पर रहा. उन्होंने कई बार इस संगठन से पीछे हटने के संकेत दिए.

ट्रंप की नाराजगी की अपनी वजह है

दरअसल अमेरिका फिलहाल इस गुट के कुल खर्च का लगभग 70 फीसदी हिस्सा देता है. इसका भी कारण है. साल 2014 में सभी नाटो सदस्यों ने मिलकर तय किया था कि वे अपनी जीडीपी का कम से कम 2% डिफेंस पर लगाएंगे. यही वो न्यूनतम खर्च है, जिसे बिल भी कहा जाता है. ज्यादातर देश इस मामले में पीछे हैं, जबकि अमेरिका ने अपनी जीडीपी का सबसे लगभग साढ़े 3 प्रतिशत डिफेंस पर खर्च किया. इसके बाद पोलैंड, ग्रीस और यूके का नंबर रहा.

ओबामा भी जता चुके नाखुशी

बीते कई सालों से कुछ देश आर्थिक हालातों के हवाले से अपना हिस्सा नहीं लगा रहे थे. इसी बात पर अमेरिकी लीडर नाराज रहने लगे. ट्रंप से काफी पहले से ये असंतोष चला आ रहा है. मसलन, सत्तर के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन नाटो के लिए यूरोपीय योगदान पर नाराजगी दिखाते हुए कहा था कि अमेरिका उनका सपोर्ट करेगा लेकिन अपनी रक्षा का जिम्मा उन्हें खुद लेना होगा. इसी तरह बराक ओबामा ने भी यूरोपीय देशों से डिफेंस बजट बढ़ाने को कहा था.

ये देश सबसे कम खर्च कर रहे

जर्मनी की जीडीपी ज्यादा होने के बाद भी वो डिफेंस पर पैसे खर्च नहीं कर रहा. नाटो का अपना डेटा कहता है कि जर्मनी ने रक्षा पर 1.57% हिस्सा ही लगाया. सबसे कम पैसे स्पेन, बेल्जियम और लग्जमबर्ग खर्च कर रहे हैं. नाटो ने जीडीपी का इतना हिस्सा सैनिकों की नियुक्ति, ट्रेनिंग और हथियारों पर लगाने कहा था ताकि अगर कभी देशों पर हमला हो तो वे तैयार रहे. बड़े हमले की स्थिति में अमेरिका पर सारा बोझ आ सकता है.

क्यों नाटो से हटने की धमकी डरा रही

नाटो वैसे तो सबकी सहमति से फैसला लेता है लेकिन अमेरिका इनमें सबसे ज्यादा ताकतवर है. उसके पास सैन्य पावर काफी ज्यादा है. इससे भी बड़ी चीज है, उसके पास परमाणु हथियारों का भंडार. यूरोप के सारे देश इसे सुरक्षा का गारंटी मानकर निश्चिंत रहते आए हैं. ऐसे में ट्रंप की धमकी परेशान करने वाली है. बता दें कि नाटो का आर्टिकल 5 कहता है कि अगर यूरोप या नॉर्थ अमेरिका के किसी भी देश पर हमला हो तो इसे सारे मेंबर्स के खिलाफ हमला माना जाएगा. फिलहाल जैसे हालात हैं, जियो-पॉलिटिकल हिसाब-किताब वैसे ही गड़बड़ाया हुआ है, ऐसे में देशों में बेचैनी लाजिमी है.

क्या ट्रंप के चाहनेभर से यूएस दूर हो जाएगा नाटो से

तकनीकी तौर पर ये मुमकिन नहीं. वहां की प्रोसेस के मुताबिक, किसी भी इंटरनेशनल संधि को खत्म करने के लिए राष्ट्रपति को सीनेट से मंजूरी चाहिए होती है. ये सहमति भी कम से कम दो-तिहाई हो तभी ऐसा किया जा सकता है. हालांकि विदेश नीति पर राष्ट्रपति के पास काफी सारे अधिकार हैं, जैसे वो एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के जरिए सीनेट की सहमति के बगैर भी बड़े फैसले ले सकता है.

ये देश काफी हद तक नाटो के भरोसे

सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था पर निर्भर रहते हुए कई देशों ने अपनी कोई तैयारी नहीं रखी. जैसे लक्समबर्ग और आइसलैंड जैसे देशों के पास अपनी खुद की बहुत सीमित सैन्य ताकत है. नाटो पर निर्भरता का अंदाजा इस बात से लगा लीजिए कि कई मजबूत देशों के पास भी अपना परमाणु हथियार नहीं, जैसे जर्मनी, इटली, और तुर्की. वे सुरक्षा के लिए अमेरिकी जखीरे के भरोसे रहे. यही वजह है कि ट्रंप के आने के साथ इन देशों में डिफेंस को लेकर खलबली मची हुई है.

यूरोप में कौन से और सैन्य संगठन

फिलहाल इन देशों में सैन्य बजट बढ़ाने पर चर्चाएं चल रही हैं. इसके अलावा प्लान बी के नाम पर यूरोप में एक और सैन्य गुट बन चुका, जिसका नाम है- कॉमन सिक्योरिटी एंड डिफेंस पॉलिसी. इसके तहत तहत यूरोपीय संघ के पास 300,000 सैनिकों की सैन्य क्षमता है, जो इमरजेंसी में अपने सदस्य देश की मदद करेगी. हालांकि नाटो के मुकाबले इसके पास काफी सीमित ताकत और संसाधन हैं.

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Vishal Leel

Sr Media person & Digital Creator
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